By Satyapal Siddharth
देश में मज़दूर भूखे चले जा रहे है,
छोड़ तुम्हारे गली मोहले,
पैदल पैदल
पकड़े अपने नन्हें बच्चों के हाथ,
कोसो कोस,
प्यास से बेहाल,
सूखी रोटी को तरसते,
परेशानियों का टोकरा सर पर उठाए,
हज़ारों मील का सफ़र तय करते,
फटें कपड़ों में,
टूटी चपलों में,
बहुत से नंगे पाव,
सूध बेसुध थके हारे,
सोते सड़कों के किनारे,
कट जाते रैल कि पटरियों पर,
चूप चाप रहकर भी,
बिना शब्दो के,
आंखों में आसूं लिये,
पूछते सैकड़ों सवाल,
तुम से हम से,
हमारी इंसानियत से,
इस सभ्य समाज से,
जो दे ना पाया आखिर,
दो जून की रोटी भी,
और ख़ुद को इंसान कहने वाले,
हम स्टेट्स पर पकवान भिन्न भिन्न लगाते हैं।