by अलका निमेश

जहां आज संम्पूर्ण दुनिया कोरोना महामारी से जंग लड़ रही है वही भारत में भी इसे परास्त करने हेतु लॉकड़ाउन (तालाबंदी) का प्रावधान किया गया है। समस्त देश अपने घरों में कैद कोरोना को हराने में बखूबी साथ दे रहा है। डॉक्टर , नर्स, पुलिस, सफाई कर्मचारी ये सभी लोग अपने आप को जोखिम में डालकर कोरोना को फैलने से बचाने का लगातार प्रयास कर रहें हैं, जो वाकई सराहनीय है। आज देश इन्ही के कंधो पर खड़ा है जो इस युद्धरूपी रणभूमि में उतरें हैं। हम सभी को ज्ञात है की 22 मार्च 2020 को संम्पूर्ण भारत में कोरोना के चलते लॉकडाउन लगाया गया, लॉकडाउन का असर देश के अलग- अलग वर्गों पर पड़ना स्वभाविक है। अलग अलग वर्ग से मेरा तात्पर्य है, गरीब वर्ग, निम्न गरीब वर्ग, मध्यम वर्ग, निम्न मध्यम वर्ग , अमीर वर्ग और उच्च अमीर वर्ग आदि से है। सभी वर्गों के लॉकडाउन के अपने–अपने अलग–अलग अनुभव हैं। किसी के लिए लॉकडाउन अपने परिवार के साथ बिताया वह वक्त है जो उन्हें सुकून से भर देता है, इससे पहले शायद भागदौड और व्यस्तता के कारण ऐसा समय उन्होंने अपने परिवारों के साथ ना बिताया हो। वहीं किसी के लिए लॉकडाउन अपने हुनर को उभारना या बहार लाना हो सकता है तो किसी के लिए शान्ति और सुकून का समय। पर इन सभी के बीच एक वर्ग ऐसा भी है जिसके लिए ये लॉकडाउन अभिशाप से कम नहीं, वह है गरीब मजदूर वर्ग। लॉकडाउन ने इस वर्ग की दुनिया को एक झटके में बदल कर रख दिया। लॉकडाउन के थपेड़ो की मार ने केवल भारत ही नहीं बल्कि दुनिया भर के मजदूरों की कमर तोड़ कर रख दी। भारत में लॉकडाउन के चलते देश के तमाम मजदूरो पर मानो कहर सा टूट पड़ा हो। कोरोना क्या है ? कैसे फैलता हैं ? इससे बचाव के उपाय क्या है ? शायद आधे से ज्यादा मजदूर वर्ग ऐसा है जिसे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं। मास्क, सेनेटाइज़र, हैंडवाश ,शायद उन्होंने अब तक के अपने जीवन में कभी न खरीदे हों या शायद कभी ये शब्द सुने भी हो। यह भी हो सकता है कि
आज भी उनके पास ये सभी चीज़े हो भी न। हाँ यह सच है, मजदूर वर्ग कोरोना से भयभीत नहीं है, वह भयभीत है भूख से। ऐसी भयानक स्थिति में उसे बीमारी होगी या नहीं वह नहीं जानता लेकिन अगर हालात ऐसे ही रहे तो भूख से जरूर उसकी मौत हो सकती हैं। अभी दो हफ्ते पहले ही मजदूर दिवस था तो उनकी वर्तमान स्थिति की तरफ ध्यान जाना लाज़िमी है, किंतु बात केवल आज की ही नहीं, मजदूरो की स्थिति का प्रश्न तो उसी दिन से मस्तिष्क में कौंध रहा है जिस दिन लॉकडाउन की घोषणा हुई और तमाम मजदूर निकल पड़े अपने घरो की ओर। आनंद विहार बस अड्डा का माहौल देख कर आँखे भर आई थी, इसलिए की ये तमाम मजदूर अपना काम छोड़कर निकल पड़े है अब इनके पास रोज़ी रोटी का कोई साधन नहीं। किसी के पास पैसे हो सकते हैं लेकिन सबके पास नहीं। वहाँ अपने गाँव जाकर ये क्या करेंगे ? क्या खायेंगे ? क्या गाँव में सभी के घर हैं ? ऐसा भी हो सकता की जहाँ ये जा रहें हो वहां इनके अपने घर भी ना हो। अपने साथ कुछ छोटा मोटा सामान लिए, साथ में बच्चे भी और कुछ तो दूधमुए, उन सभी को लेकर वो निकल पड़े पैदल ही।
लॉकडाउन के दौरान जब मजदुर दिवस आता है तो वह मर्मर तस्वीर मस्तिष्क में छप जाती है जिसे आज का भारतीय मजदूर जी रहा है। आइये थोडा इतिहास में झांकते हैं की मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई की शुरुआत कब हुई। अंतर्राष्ट्रीय तौर पर मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1 मई 1886 को की गई थी। अमेरिका के उन तमाम मजदूरों ने यह फैसला किया की वे 8 घंटे से अधिक कार्य नहीं करेंगे और इसी सिलसिले में उन्होंने हड़ताल की। हड़ताल के दौरान ही शिकागो की के होमकेर्ट में बम ब्लास्ट हुआ जिससे निबटने हेतु मजदूरों पर गोली चलाई गई इस घटना के परिणामस्वरूप कई मजदूरों की मौत हो गई इसके पश्चात 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मलेन में यह ऐलान किया गया की इस घटना में मारे गये निर्दोष लोगो की याद में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाएगा।
भारत में मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत 1 मई 1923 में हुई थी उस समय इसे मद्रास दिवस भी कहा जाता था इसकी शुरुआत भारतीय मजदूर किसान पार्टी के नेता सिगरावेलु चेट्टयार ने की थी। इन सब के बावजूद एक ऐसा समाज सुधारक था जिसने मजदूर वर्ग के हक़ व अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। वह थे डॉ बी. आर . आंबेडकर। आंबेडकर भारतीय संविधान के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं परंतु संविधान निर्माण से पूर्व वे वायसराय की परिषद् के श्रम सदस्य के रूप में भी कार्य कर चुके थे। जिसे श्रम मंत्री भी कहा जा सकता है। अम्बेडकर ने 1942 से 1946 तक श्रम मंत्री रहते हुए श्रमिक वर्ग की समस्यायों का समाधान करने हेतू विशेष योगदान दिया। अम्बेडकर ने 1936 में “ इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी” की स्थापना की। इस पार्टी के उद्घोषणा पत्र में मजदूरों, किसानों, अनुसूचित जातियों और निम्न मध्य वर्ग के अधिकारों का उल्लेख है। शुरुआत के समय से ही आंबेडकर मजदूरों की समस्याओं से सम्बंधित आन्दोलन करते रहे थे। फलस्वरूप सन 1934 में वे “बंबई म्युनसिपल कर्मचारी संघ” के अध्यक्ष चुने गये थे। बॉम्बे विधानसभा में 15 सितम्बर 1938 को जब मजदूरों द्वारा की जाने वाली हड़ताल के विरुध्द ‘इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट बिल’ लाया गया तो आंबेडकर ने इसका जमकर विरोध किया एवं मजदूर संगठनों के साथ मिलकर इस बिल के विरोध में आंदोलन चलाया। उन्हें इस बिल को रद्द करने में सफलता भी प्राप्त हुई।
1938 में रेलवे मजदूरों के एक सम्मेलन में अपने भाषण में उन्होंने कहा की “अभी तक हम अपनी सामजिक समस्याओं को लेकर ही संघर्ष कर रहें थे परंतु अब समय आ गया है की हम अपनी आर्थिक समस्याओं को लेकर संघर्ष करें।” 1946 में आंबेडकर ने श्रम सदस्य की हैसियत से केंद्रीय असेंबली में ‘न्यूनतम मजदूरी निर्धारण’ संबंधी बिल पेश किया जो 1948 में जाकर ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ बना। इसी के साथ 1946 में उन्होंने “लेबर पार्टी” की स्थापना की। आंबेडकर के विशेष प्रयासों के परिणामस्वरूप ही श्रमिक, मालिक और सरकार का त्रिपक्षीय संगठन का सम्मेलन आयोजित किया गया। इस संगठन के पश्चात सरकार को श्रमिको के हितों की रक्षा एवं सुरक्षा के संरक्षण में विशेष कानून बनाने पड़े। आंबेडकर ने अपने श्रम मंत्री के कार्यकाल के दौरान श्रमिको के हितों में लगभग 25 कानूनो का निर्माण किया। न केवल पुरुष श्रमिको को बल्कि महिला श्रमिको को भी इन कानूनों में विशेष स्थान दिया गया। आंबेडकर के यही कार्य समान कार्य के लिए समान वेतन संबंधी कानून का आधार बने।
दूसरी ओर आंबेडकर ने खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को भी ध्यान में रखकर उनके अधिकारों की आवाज़ उठाई। ये ग्रामीण मजदूर लगातार शोषण का शिकार हो रहे थे, आंबेडकर ने अपनी श्रम – अधिकारों की लडाई में उनके हित संरक्षण को भी सर्वोपरि रखा, जैसे की कृषि मजदूरों के संरक्षण हेतु उन्होंने भूमी सुधार को आवश्यक माना। वे भूमि सुधार तथा आर्थिक गतिविधियों में राज्य के हस्तक्षेप के पक्षधर थे। अम्बेडकर के प्रयासों के परिणामस्वरूप ही ‘मुख्य श्रम आयुक्त’, ‘प्रोविंसियल श्रम’ , तथा ‘श्रम निरीक्षक’ जैसे सरकारी पदों को सृजित किया गया ताकि ये अधिकारी श्रमिको के हितो के संरक्षण का काम कर सके तथा श्रमिक बेझिझक उनके समक्ष अपनी समस्याए रख सके। इसके अलावा सक्षिप्त में कुछ कार्य ये हैं जो उन्होंने श्रम मंत्री रहते हुए किये।
काम का समय 12 घंटे से 8 घंटा
रोजगार कार्यालय की स्थपाना
कर्मचारी संगठन को मान्यता
भारतीय फैक्ट्री अधिनियम
महंगाई भत्ता
अवकाश का वेतन
स्वास्थ्य बिमा
कानून हड़ताल का अधिकार
भविष्य निधि
तकनीकी प्रशिक्षण योजना
महिला मजदूरों के लिए कानून
खान मातृत्व लाभ अधिनियम
महिला श्रम कल्याण कोष
महिला और बाल श्रम सुरक्षा अधिनियम
महिलायों को प्रसूति अवकाश
कोयला खदानों में भूमिगत काम पर महिलायों के रोजगार पर प्रतिबंध
समान कार्य केलिए समान वेतन
आंबेडकर ने ये तमाम कार्य श्रम मंत्री रहते हुए किये। आंबेडकर का दृष्टिकोण उस समय के कई राष्ट्रीय नेताओं से अधिक व्यापक था। उन्होंने बहुआयामी क्षेत्रों में कार्य किये थे चाहे वह दलितों के अधिकारों से संबंधित मुद्दा हो या कृषि से संबंधित, संविधान से संबंधित हो , शिक्षा से सम्बंधित हो , धर्म से सम्बंधित हो, जाति से सम्बंधित हो या फिर महिलायों से सम्बंधित हो। इन तमाम क्षेत्रों में अम्बेडकर ने अपने आधुनिक विचार रखकर समस्याओं का निदान सुझाया।
आमतौर पर आंबेडकर को सिर्फ एक ही खाकें में आंककर देखा जाता है। संविधान निर्माता और दलितों के अधिकारों की लडाई लड़ने वाले नेता, इससे ज्यादा बहुत कम लोग उनके बारे में जानते हैं। अम्बेडकर ने श्रमिको के लिए ये तमाम कार्य किये। वे निरंतर श्रमिक वर्ग के अधिकारों की लड़ाई लड़ते रहें, जरुरी नहीं की ये तमाम जानकारियां सभी की पहुंच तक हो। यह विडंबना ही रही हैं की आंबेडकर को एक दलित नेता की छवि में कैद कर दिया गया। वे कभी भी उस दलित नेता की छवि से बहार नहीं आ पाए या यूँ कहें की लाये ही नहीं गये। इसका जिम्मेदार शायद वह समाज रहा जो कभी भी अम्बेडकर को दलित नेता से उपर उठकर नहीं देख पाया। जिम्मेदार केवल वह समाज ही नहीं , जिम्मेदार मुख्यधारा का वह संचार माध्यम भी है जिसने हमेशा उस व्यक्ति की बहुआयामी छवि की उपेक्षा की है, जिम्मेदार तो वह बुद्धिजीवी वर्ग भी रहा है जिसकी कलम कभी इस बहुआयामी छवि वाले व्यक्ति के लिए नहीं चली। अम्बेडकर को मात्र एक ही खाकें में खड़ा करना उनके विचारो व कार्यों के साथ अन्याय होगा और शायद अब तक यह होता भी आया है। अभी दो हफ्ते भर पहले ही मजदूर दिवस था, मजदूरो से सम्बंधित ना जाने कितने ही लेख अखबारों, पत्र पत्रिकाओं आदि में छपे पर अफ़सोस, आंबेडकर का शायद ही किसी ने अपने लेखो में जिक्र किया हो। मुख्यधारा के उस जनसंचार माध्यम के द्वारा उस व्यक्ति जिसने मजदूर वर्ग के लिए ये तमाम कार्य किये हो, को मजदूर दिवस पर याद न करना जातिगत मानसिकता से ग्रस्त होने का प्रमाण देता है। अम्बेडकर के उन कार्यों व संघर्ष को याद करना लाज़िमी हो जाता है परंतु चाहे मजदूर दिवस हो, गणतंत्र दिवस हो, या महिला दिवस हो आंबेडकर ना जाने क्यूँ धुंधलें से दिखाई पडतें हैं। धुंधले उनके लिए जो देखना चाहते हैं और उनके लिए तो है ही नहीं जो कभी देखना ही नहीं चाहते।
अलका निमेश पीएचडी शोधार्थी, राजनितिक विज्ञान विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय